اے شریف انسانون - ساحر لدھیانوی
जंगी जूनून के खिलाफ जनता के कवि साहिर लुधियानवी की प्रसिद्ध कविता "ऐ शरीफ इंसानों" आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी जनवरी १९६६ में थी जब प्रेम और शांति के शायर, साहिर ने इसको हिन्द-पाक ताशकन्द समझौते के अवसर पर स्वयं पढ़ा था!
खून आपना हो या पराया हो
नसल-ऐ-आदम का ख़ून है आख़िर,
जंग मशरिक में हो या मगरिब में,
अमन-ऐ-आलम का ख़ून है आख़िर !
बम घरों पर गिरे के सरहद पर ,
रूह-ऐ-तामीर जख्म खाती है !
खेत अपने जले के औरों के ,
ज़ीस्त फ़ाकों से तिलमिलाती है !
टैंक आगे बढ़ें की पीछे हटें,
कोख धरती की बाँझ होती है !
फतह का जश्न हो के हार का सोग,
ज़िंदगी मय्यतों पे रोती है !
जंग तो खुदही एक मसलआ है
जंग क्या मसअलों का हल देगी ?
आग और ख़ून आज बख्शेगी
भूख और एहतयाज कल देगी !
इसलिए ऐ शरीफ इंसानों ,
जंग टलती रहे तो बेहतर है !
आप और हम सभी के आँगन में,
शमा जलती रहे तो बेहतर है !
-साहिर
(ساحر لدھیانوی)
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साहिर लुधियानवी, ਲੇਖਕ
Gurbhajansinghgill@gmail.Com
98726 31199
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