वीरवार सुबह साढ़े तीन बजे अचानक नींद खुली। मेरे मोबाइल से बीप सुनाई दी। बीप मेरे अकाउंट में आई ईमेल की थी। फोन उठाकर देखा, यह मेल ईजीएस अध्यापक यूनियन की थी। लिखा था, सामूहिक आत्मदाह का स्थान बदल दिया गया है। पहले चंडीगढ़ था अब इसका स्थान गिद्दड़बाहा होगा। इसी यूनियन ने दो दिन पहले ही फेसबुक पर अपना पेज शुरू किया था।
बुधवार को इन्ही अध्यापकों का सुखना अब्लू गांव में पुलिस के साथ तकरार हुआ था। चंद मिनटों में ही खबर मीडिया के पास थी। जरिया था ई-मेल और फेसबुक। इस मामले में किसान भी पीछे नहीं। मुख्यमंत्री के प्रिंसिपल दरबार सिंह गुरु बता रहे थे कि उन्होंने बीकेयू के एक नेता को अपनी मांगें लिखित में भेजने को कहा है। किसान नेता का जवाब था ‘अपना ई-मेल पता बता दो’, सोचने वाली बात है इंटरनेट लोगों के हाथ में कितना तेज तर्रार संचार साधन है। कोई भी व्यक्ति हो, लोगों का समूह हो या कोई संस्था, अपनी बात पलों में ही संसार के हर कोने तक पहुंचा सकता है। यह सूचना यंत्र, लोगों के पास एक अति आधुनिक शस्त्र है। जन साधारण की शक्ति का स्रोत है। एक वक्त था, अन्य श्रोतों की तरह सूचना तंत्र पर बादशाहों और सरकारों की ही मलकियत थी। लोकतंत्र में भी लोग निहत्थे थे और हुकूमत पर ही निर्भर थे। अब युग पलट रहा है। टेक्नोलॉजी भी एक सामाजिक बदलाव का साधन बन रही है। सवाल फेस बुक, गूगल या अन्य सोशल नेटवर्क का नहीं, संचार साधनों की हुकूमत के हाथों निकलकर जन साधारण की ताकत बनने का है। सिर्फ भारत ही नहीं हर मुल्क में लोगों की इस नई ताकत से सत्ताधारी डरने लगे हैं। आगे आपकी ई-मेल को रेगुलेट करने की बारी आएगी। दोष केवल कपिल सिब्बल का नहीं, कभी मीडिया, कभी सोशल नेटवर्क को सेंसर करने की कोशिश, राजसत्ता की सामंतवादी विचारधारा का इज़हार है। रहा सवाल खुले मीडिया के दुरुपयोग का तो हाथ में आई शक्ति का दुरुपयोग हुकूमत भी करती है और लोग भी। इसको निरुत्साहित करना लाजि़मी है और नियमत: भी, लेकिन मनमानी से नहीं लोगों को विश्वास में लेकर। प्रश्न तो मंशा का है। कपिल सिब्बल और उनकी सरकार की मंशा केवल धार्मिक भावनाएं भड़काने वाली समग्री को ही सोशल नेटवर्क में रोकना है या इरादा कोई और है, इसे लोग अच्छी तरह समझते हैं।
आचार संहिता लागू होने से पहले खर्चे करोड़ों रुपए का हिसाब कैसे करेगा चुनाव कमीशन?
चुनाव कमीशन का ताजा निर्देश है। लंगर का खर्चा भी उम्मीदवार के खाते में माना जाएगा। तैयारी से भी ऐसा लग रहा है, धन के दुरुपयोग के प्रति रुख भी कड़ा होगा। लेकिन करोड़ों का खर्चा तो चुनाव की घोषणा और कोड लागू होने से पहले ही हो चुका है। सभी पार्टियों और उनके सम्भावी उम्मीदवार इस दौड़ में शामिल हैं। सत्तापक्ष तो सरकारी धन को भी बरत रहे हैं। अब तो राजनीतिक जलसों में दरियों की जगह गद्देदार कुर्सियों ने ले ली है। एक कांग्रेसी नेता ने बताया कि एक अच्छी रैली पर एक करोड़ तक का खर्चा आ जाता है। करोड़ों का कालाधन खर्च हो भी गया, पर चुनाव आयोग देख रहा है पर विवश है, कर कुछ नहीं सकता।
Baljit Balli
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Tirchhi Nazar by Baljit Balli, 09-12-11,
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