सोनिया के आगे मनमोहन का बृक्ष भी बौना पड़ा
कांग्रेस प्रेसिडेंट सोनिया गाँधी के आगे प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह का राजनितिक कद्द ही छोटा नहीं होता जा रहा बलकि मनमोहन सिंह के लगाये पेड़ भी सोनिया के लगाये पेड़ों के आगे बौने पड़ जाते है.यह सचाई अपनी आखों के सामने देखनी है तो चंडीगढ़ के सेक्टर 3 में पंजाब भवन में जा कर खुद देख ली जिए.
इस भवन के पिछवाड़े लान में सोनिया गाँधी और डॉ मनमोहन सिंह ने एक ही समय दो पौदे लगाये थे पर कमाल यह हुआ की सोनिया गाँधी का पौदा तो अच्छा ख़ासा वडा पेड़ बन गया लेकिन मनमोहन सिंह के हाथों लगा पौदा पतला -दुबला सा और छोटे कद्द का ही रह गया .
8 अक्टूबर ,2005 को सोनिया और मनमोहन सिंह ने लगभग एक ही आकार और उम्र के शीशम के पेड़ अपने हाथों अलग-अलग लगाये थे .दोनों में सिर्फ 10 गज का ही फासला था . अवसर था कांग्रेस शासित प्रान्तों के मुख्य मंत्रिओं का कोंक्लेव . जब पेड़ लगाये गए तो पंजाब के उस वक्त के मुख्य मंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह वहां मौजूद थे . लगभग 6 वर्ष में दोनों के विकास में वडा अंतर साफ दिखाई देता है . दोनों की देख भाल तो एक जैसी ही हुई थी लेकिन मनमोहन सिंह का पेड़ लम्बाई ,चौड़ाई तथा आकार में बहुत छोटा पड़ गया . यह कुदरत का खेल है या दिल्ली के राजनितिक माहौल का असर ,इस का फैसला पाठक करें .
चुनावी सरगर्मी शुरू होने से पहिले ही बदल रहे हैं पंजाब की अफसरशाही के भी तेवर
गोवेर्नस सुधारों को टालने की कोशिश में अफसरशाही
बादल सरकार ने गोवेर्नांस रिफोर्म्स कमिशन की सिफारश पर पंजाब राईट टू सर्विस एक्ट का ओर्डिनांस तो जारी कर दिया है लेकिन इस को लागू करना आसान काम नहीं है .इस के लिए अभी काफी कुझ करना बाकि है .ओर्डिनांस के मुताबिक अलग -अलग जन सेवाओं की डेलिवरी को समाबध करने के लिए हरेक विभाग के समे को नोटिफाई करना पड़ेगा.एक तरफ डिपुटी सी एम सुखबीर बादल की कोशिश है कि विधान सभा चुनाव पर्किरिया शुरू होने से पहिले ही इस एक्ट को अमल में ला दिया जाये ,दूसरी ओर अफसरशाही तथा बाबूशाही दोनों की कोशिश है कि किसी न किसी तरह इस को लटकाया और चुनाव कोड लगने तक टाल दिया जाये . दोनों अपनी जवाबदेही से बचना चाहते हैं . अंदर की बात है पंजाब राईट टू सर्विस एक्ट को रोकने के लिए भी अफसरशाही ने पूरी कोशिश की. गोवेर्नांस रिफोर्म्स कमिशन के मुखी डॉ परोमोद कुमार को खुद आलाह अफसरों की मीटिंगों में जा कर इस फैसले को आगे लिजाने के लिए काफी असाधारण यतन करने पड़े. यहाँ तक की सरकारी फाइलों का पीछा भी उन्हें करना पड़ा . आम तौर पर कमिशन तो अपनी रिपोर्ट्स सरकार को देते है जिने लागू करना सरकार का काम होता है. पहिले जब सरकार ने हल्फिया बिआन ख़तम करने का निरना लिया था तो इसे भी कई महीने लटकाया गया . यह भी सूचना है कुछ विभागों के अफसरों के सुधर विरोधी रवैये से तो डॉ प्रोमोद कुमार भी तंग आ गए थे . ट्रांसपोर्ट में माफिया हावी होने की बात कह कर वह एक वार खुद पीछे हट गये थे. दिलचस्प बात यह भी है की यहाँ इन सुधारों को लागू करने के लिए स्पेशल बजट की वैअव्स्था की गई वहां अफसरों ने रुकावट नहीं डाली. हकीकत यह है अफसरशाही का भी राजनीतिकरण हो चूका है .इस का एक हिस्सा तो वैसे ही कांग्रेस की तरफ झुका हुआ है इसके इलावा भी काफी हिस्सा मौजूदा सिआसी लीडरशिप को पसंद नहीं करता .चुनाव नजदीक होने के कारण ज़यादा अफसरशाही वेट एंड वाच नीति पर भी अफसरशाही चलने लगी है .पंजाब राईट टू सर्विस एक्ट, लागू होगा या सिर्फ कागज़ी करवाई तक सीमित रहेगा और नाकस सरकारी प्रबंध से कभ आम लोगों को राहत मिलेगी यह तो समय ही बताएगा लेकिन एक वार लागू होने के बाद ,सरकारी जवाबदेही के लिए यह भी सूच्ना अधिकार एक्ट की तरह लोगों के हाथों में एक अच्छा हथिआर साबत हो सकता है. अकाली-बी जे प़ी गठबंधन को चुनाव में इस एक्ट का कोई लाभ होगा या नहीं यह कहना मुश्किल है लेकिन यह एक्ट सत्तापक्ष के पास राजनितिक पहिल्कदमी का एक मुदा तो बन ही गया है .
मैं अकेला ही पगड़ीधारी काफी हूँ
मनमोहन सरकार में उनके इलावा सिर्फ एक ही पगड़ीधारी सिख थे एम एस गिल. ताज़ा फेरबदल में गिल की छुट्टी कर दी गई.इस में किसी को हैरानी नहीं हुई .जिस कद्र गिल कामनवेल्थ गेम्स के समय और बाद में उनकी निराशाजनक कारगुजारी रही और वे विवादों में घिरे रहे , उन का जाना तह था. गिल पंजाब काडर के ही पूर्व आई ऐ एस हैं तथा पंजाब से ही राज्या सभा मेम्बर हैं. डाक्टर गिल की एक कमजोरी यह है की वह अहम के शिकार रहे है .सोनिया के इशारे पर उनको पंजाब से राज्य सभा सीट मिली लेकिन वह हमेशा पंजाब के कांग्रेसी नेताओं को नज़रंदाज़ करते रहे. वह कभी भी पंजाब कांग्रेस की ऐसी मीटिंग में भी नहीं शामिल हुए जिसमें सभी सांसदों को निओता दिया जाता है.शायद डॉ गिल अपने आप को बड़ा और सुपीरीअर मानते थे.
खैर ,असल मुद्दा यह है की आज़ादी के बाद अब तक जितनी भी सरकारें केंद्र में बनी उनमें एक या दो पगड़ीधारी सिख वजीर ज़रूर होते थे . नेहरु से लेकर शाश्त्री, इंदिरा , राजीव गाँधी और वाजपेयी तक एसा ही होता रहा . शामिल किये जाते रहे नेता पंजाब के थे या और प्रान्तों के ,लेकिन पगड़ीधारी सिखों को प्रतीकात्मक प्रतीनिधता सेंटर में मिलती रही. डॉ मनमोहन सिंह ने अपनी पहली यु पी ऐ सरकार के चार वर्ष बाद 2008 में उन्होंने डॉ गिल को अपनी सरकार में शामल किया . 2009 में फिर डॉ गिल को मंत्री बनाया गया .अब किये गए मंत्री मंडल के विस्तार में डॉ गिल को ड्रॉप करने के बाद उनकी जगह कोई और पगड़ीधारी मंत्री नहीं बनाया गया.हो सकता है कि प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह सोचते हों कि केन्द्रीय वजारत में मैं अकेला ही पगड़ीधारी सरदार काफी हूँ .पगड़ीधारी तो छोडो पंजाब से किसी को नया राज्य मंत्री तक भी नहीं बनाया गया जब कि अब पंजाब के महारानी परिनीत कौर, अम्बिका सोनी और अशवनी कुमार ही मंत्री हैं .पंजाब के विधान सभा चुनाव नजदीक होने के कारन इसी उम्मीद थी कि केंद्र सरकार में पंजाब को और प्रतीनिधता दी जाएगी.कुछ कांग्रेसी एम पीज ने इसी आशा के साथ दिल्ली में लाब्यिंग भी की थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ . वो तो निराश हैं ही पर उनके साथ पंजाब कांग्रेस में दलित वर्ग के नेता भी मायूस है कि कांग्रेस के तीन चुने हुए लोक सभा मेंबर होते हुए भी इन में से किसी को भी मंत्री नहीं बनाया. सोनिया -मनमोहन जोड़ी ने उनको केंद्र सरकार से दूर ही रखा . उनमे सुखदेव सिंह लिबड़ा , संतोष चौधरी तथा मोहिंदर सिंह के. पी. शामिल हैं.
दलित नेताओं को समझ नहीं आ रहा कि कांग्रेस हाई कमांड चुनाव से पहले पंजाब के दलित वर्ग को क्या मेसेज देना चाहती है.दूसरी अकाली दल और बादल सरकार इसी वर्ग को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे .
इस हिसाब से उत्तर परदेश के मामले में भी यह बात समझ में नहीं आ रही कि राज बब्बर को मंत्री क्यों नहीं बनाया गया .जब से उसने मुलायम सिंह यादव से बगावत की है तब से आज तक राहुल गाँधी तथा पार्टी ने राज बब्बर को खूब यूज़ किया और अगले वर्ष होने वाले विधान सभा चुनाव में फिर वोह स्टार क्म्पेनर होंगे पर उसको भी निराशा ही दी . कहीं राज बब्बर को भी पंजाबी होने की सज़ा तो नहीं दी जा रही.
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Baljit Balli / बलजीत बल्ली,
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